जीवन की कीमत मृत्यु सिखाती है, यही है मानव जीवन का मर्म
मृत्यु को प्रायः जीवन का अंत माना जाता है, जबकि वास्तव में मृत्यु ही जीवन का आधार है। पुरुष और नारी के संयोग से जीवन की उत्पत्ति होती है।

मृत्यु को प्रायः जीवन का अंत माना जाता है, जबकि वास्तव में मृत्यु ही जीवन का आधार है। पुरुष और नारी के संयोग से जीवन की उत्पत्ति होती है। सृजन की शक्ति नारी में निहित मानी गई है, जबकि पुरुष का कार्य उस सृजन को संवारना और संरक्षित करना है। यही कारण है कि वैदिक ग्रंथों में नारी को शक्ति स्वरूपा माना गया है और उसकी उपासना पर विशेष बल दिया गया है। शक्ति के बिना पुरुष को अधूरा माना गया है। पृथ्वी को भी नारी स्वरूपा कहा गया है।
वैज्ञानिक दृष्टि से जीवन और मृत्यु
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो सौरमंडल में स्थित सभी ग्रह-नक्षत्र, तारे और पृथ्वी पर मौजूद समस्त चर-अचर वस्तुएं विभिन्न ऊर्जाओं के संगठित रूप हैं। मनुष्य का शरीर भी ऐसा ही एक ऊर्जा-पिंड है। संत-कवियों ने इसी कारण मानव शरीर की तुलना पानी के बुलबुले से की है। ऊर्जाओं के संगठित होने को जीवन और उनके विघटन को मृत्यु कहा जाता है।
जन्म, कर्म और मृत्यु का चक्र
पृथ्वी पर कर्म ही जीवन का आधार है। कर्म की दो प्रवृत्तियां होती हैं—लेना और छोड़ना। संसार में होने वाले सभी कर्म इन्हीं दो प्रवृत्तियों के इर्द-गिर्द घूमते हैं। जन्म लेकर कर्म न करना असंभव है।
मृत्यु से भौतिक शरीर नष्ट हो जाता है, लेकिन व्यक्ति के कर्म और नाम शेष रहते हैं। अच्छे कर्म करने वालों को समाज महापुरुष के रूप में और बुरे कर्म करने वालों को दुष्ट के रूप में याद रखता है।
मनुष्य और अन्य प्राणी में अंतर
मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में कर्म-चयन की स्वतंत्रता नहीं होती। उनका मस्तिष्क केवल भोजन, निद्रा, भय और वंशवृद्धि तक सीमित रहता है। उन्हें अच्छे और बुरे कर्म का बोध नहीं होता। इसके विपरीत मनुष्य अपने विकसित मस्तिष्क, मन, बुद्धि और विवेक के माध्यम से सही-गलत का निर्णय करने में सक्षम होता है।
जीन कोड और मृत्यु का रहस्य
हर प्राणी का जीन कोड अलग-अलग होता है। इसी जीन कोड में मृत्यु का जीन भी निहित रहता है, जो उसकी आयु निर्धारित करता है। जीन कोड के भिन्न होने के कारण ही हर व्यक्ति के फिंगरप्रिंट अलग होते हैं।
पृथ्वी पर जन्म लेने वाला हर प्राणी जन्म, विकास और मृत्यु—इन तीन अवस्थाओं से गुजरता है। मृत्यु इन तीनों के बीच संतुलन बनाए रखती है। यदि मृत्यु न होती, तो पृथ्वी पुराने और जर्जर पिंडों से भर चुकी होती।
मृत्यु: भय नहीं, उत्सव
मृत्यु के कारण ही पुराने पिंडों का स्थान नए पिंड लेते हैं और पृथ्वी सदा ऊर्जावान बनी रहती है। यही कारण है कि ज्ञानी लोग मृत्यु से भयभीत नहीं होते, बल्कि उसे एक पर्व की तरह स्वीकार करते हैं।
आत्मा क्या है?
आत्मा शरीर की चेतना शक्ति है, जो किसी एक अंग से जुड़ी नहीं होती। शरीर के नष्ट हो जाने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता।
आत्मा का स्थान वही है, जो घर में बल्ब और ट्यूबलाइट के लिए बिजली का होता है। बिजली दिखाई नहीं देती, लेकिन उसके बिना प्रकाश संभव नहीं। जैसे ही पावर हाउस से संबंध टूटता है, प्रकाश समाप्त हो जाता है।
सूर्य: पृथ्वी की आत्मा
वेद-पुराणों में सूर्य को पृथ्वी की आत्मा कहा गया है। सूर्य सौरमंडल का सबसे बड़ा पावर हाउस है। उसकी रश्मियों को देखा या छुआ नहीं जा सकता, केवल अनुभव किया जा सकता है।
सूर्य ही एकमात्र ऐसा स्रोत है, जिसकी किरणें एक साथ चारों दिशाओं में समान रूप से फैलती हैं। चंद्रमा भी सूर्य से प्रकाश लेकर संसार के आधे भाग को प्रकाशित करता है।
आत्मा और सूर्य का संबंध
इस आधार पर कहा जा सकता है कि मनुष्य की आत्मा का संबंध सूर्य की रश्मियों से है। गर्भनाल के कटते ही ये रश्मियां जीव में प्रवेश कर उसे चैतन्य बनाती हैं। जब तक यह संबंध बना रहता है, तब तक शरीर जीवित रहता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मानव शरीर पर सबसे अधिक प्रभाव सूर्य और चंद्रमा का ही पड़ता है।
मृत्यु के बदलते रूप
मृत्यु समय-समय पर अलग-अलग रूप धारण करती रही है। कभी प्लेग और मलेरिया जैसी महामारियों के रूप में, तो आज भूकंप, बाढ़, चक्रवात, सुनामी, युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं के रूप में।
भय को मृत्यु का दूसरा नाम कहा गया है। मृत्यु से बचा नहीं जा सकता, लेकिन भय पर विजय पाकर उसे कुछ समय तक टाला जा सकता है। यह क्षमता केवल महापुरुषों में होती है।
महापुरुष और मृत्यु
महापुरुष मृत्यु से भयभीत नहीं होते। वे अपना कार्य पूर्ण कर स्वयं मृत्यु का आह्वान करते हैं। उन्हें अपनी मृत्यु और उसके स्वरूप का पूर्ण ज्ञान होता है।
दया मृत्यु पर बहस
आज जीवन से निराश अनेक लोग दया मृत्यु के लिए डॉक्टरों, सरकार और न्यायालयों से गुहार लगा रहे हैं। इस विषय पर विश्वभर में चिकित्सकों, कानूनविदों, राजनीतिज्ञों और समाजशास्त्रियों के बीच बहस जारी है। कुछ इसे व्यक्ति का मौलिक अधिकार मानते हैं, तो कुछ इसे घृणित अपराध बताकर इसका विरोध करते हैं।
मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य
इतिहास में जितने भी महापुरुष हुए, उन्होंने मृत्यु नहीं, बल्कि मानव जाति के कल्याण के लिए जीवन समर्पित किया। परमात्मा ने मनुष्य को पृथ्वी का स्वामी बनाकर इसे सुंदर, हरा-भरा और जीवंत बनाए रखने का दायित्व सौंपा है, न कि इसे श्मशान में बदलने का।
पृथ्वी के सभी चर-अचर प्राणी एक-दूसरे से अदृश्य संबंधों से जुड़े हैं। मनुष्य भी इनके सहयोग के बिना कोई कर्म नहीं कर सकता।
निष्कर्ष: जीवन और मृत्यु विरोधी नहीं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं। मृत्यु के बिना जीवन का संतुलन संभव नहीं और जीवन के बिना मृत्यु का कोई अर्थ नहीं। यही इस सृष्टि का शाश्वत सत्य है।




